Wednesday, January 21, 2015

फकीर कौम के आये हैं झोलियां भर दो?

फकीर कौम के आये हैं झोलियां भर दो?

3 सितम्बर 1911 को लखनऊ में पं. मदन मोहन मालवीय जी के भाषण के पूर्व इस कविता को सुनाया गया था। इसको सुनने के बाद काशी हिंदू विश्व विद्यालय बनाने हेतु लोगों ने दिल खोलकर दान दिया। इस का प्रकाशन काशी पत्रिका (संपादक सीताराम चतुर्वेदी) में हुआ था।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ग्रंथालय ने पं. मदन मोहन मालवीय जी से संबधित सामग्री को डिजिटल रूप में सुरक्षित करके महामना डिजिटल लाइब्रेरी के माध्यम से विश्व पटल पर ला दिया है । इसके अंतर्गत पुस्तकें, शोधग्रंथ, पत्रिकायें तथा फोटोग्राफ शामिल हैं। इसी में शामिल से एक लेख प्रस्तुत कर रहा हूं ।
(डा. विवेकानंद जैन उप ग्रंथालयी, काशी हिंदू वि.वि., वाराणसी)

फकीर कौम के आये हैं झोलियां भर दो?


इलाही कौन फरिश्ते हैं ये गदाए वतन
सफाए ‌क्ल्ब से जिनके बज्म है रौशन्॥
झुकी हुई है सबों की लिहाज से गर्दन,
हर एक जुबां पर है ताजीम औ अदब के सखुन
सफें खड़ी हैं जबानों की और पीरों की,  
खुदा की शान यह फेरी है किन फकीरों की।

फकीर इल्म के हैं इनकी दास्तां सुनलो,
पयाम कौम का दुख-दर्द वयां सुन लो।
यह दिन वो दिन है जो है यादगार हां सुन लो
      है आज गैरते कौमी का इम्तहां सुन लो।
यही है वक्त अमीरों की पेशवाई का,
      फकीर आये हैं कासा लिये गदाई का।
जो अपने वास्ते मांगें ये वो फकीर नहीं
      तमअ में दौलते दुनिया की ये असीर नहीं
अमीर दिल के हैं जाहिर के ये अमीर नहीं
      बह आदमी नहीं जो इनका दस्तगीर नहीं।

तमाम दौलते जाती लुटा के बैठे हैं,  
तुम्हारे वास्ते धूनी रमाके बैठे हैं।
सबाल इनका है तालीम का बने मंदिर,       
कलश हो जिसका हिमालासे औज में बरतर॥
इसी उमींद पै ये घूमते हैं शामोसहर,  
सदा लगाते हैं राहे खुदामें यह कहकर।
“बह खुदगरज है जो दौलत पै जान देते हैं,  
बही हैं मर्द जो विद्या का दान देते हैं”।

सबाल रद न हो इनका ये शर्त है तदवीर।
      इसी से पायेंगे ईमान आबरू तौकीर॥
यह है तरक्किये कौमीके बास्ते अकसीर्।
      बहें उलूम की गंगा पियें गरीब अमीर्॥

बकारे कौम बढ़े दूर बेजरी हो जाये।
      उजड़ गयी है जो खेती बह फिर हरी हो जाये।
जो हो रहा है जमाने में है तुम्हें मालूम
      कि हो गये हैं गरां किस कदर फिनून उलूम्।
तुम्हारी कौमसे दौलत हुई है यों मादूम,       
कि अब तरसते हैं पढ़ने को सैकड़ों मासूम्।
बह खुद तरसते हैं, मां बाप उनके रोते हैं,  
तुम्हारी कौम के बच्चे तबाह होते हैं॥

ये बेगुनाह उसी कौम के हैं लखते-जिगर।
      कि जिसने तुमको भी पाला है सूरते मादर।
जिगर पै कौमके इफलास का चले खंजर्।
      गजब खुदाका तुम्हारे दिलों पै हो न असर्॥
उसी से बेखबरी जिसके दम से जीते हो।
      उसे रूलाते हो जिस मां का दूध पीते हो?

यह कहत क्या है, यह ताऊन क्या है, क्या है बवा।
      तुम्हारी कौम पे नाजिल हुआ है कहरे खुदा।
जो राहेरास्त में होती है कोई कौम जुदा।
      इसी तरह उसे मिलती है एक रोज सजा॥
इसी तरह से हवा कौम की बिगड़ती है
      इसी तरह से गरीबों की आह पड़ती है।

गुनाह कौम के धुल जायें अब बह काम करो।
      मिटे कलंक का टीका बह फैज आम करो॥
किफा को जहल को बस दूर से सलाम करो।
      कुछ अपनी कौम के बच्चों का इंतजाम करो॥

यह काम हो के रहे चाहे जां रहे न रहे।
      जमीं रहे न रहे आसमां रहे न रहे।
ये कारे खैर में कोशिस यह कौम क दरबार्।
      लगा दो आज तो चांदी के हर तरफ अम्बार्॥

ये सब कहें कि है जिंदा ए कौम गैरतदार।
      है इसके दिल में बुजुर्गों की आबरू का बकार।
सरों में हुब्बे बतन का जुनून बाकी है
      रगों में भीष्मी अर्जुन का खून बाकी है।

मिसेज बिसेण्ट के अहसान की तुम्हे है खबर
      किया निसार बुढ़ापा तुम्हारे बच्चों पर॥
शरीक बो भी हैं इस कार खैर के अंदर।
      न आंख उनकी हो नीची रहे ये मद्दे नजर्॥
मिटे न बात कहीं तुमपै मिटने बालों की।
      तुम्हारे हाथ है शर्म उन सफेद बालों की॥

तुम्हारे बास्ते लाजिम है मालवीका भी पास।
      कि जिसकी जात से अटकी हुई है कौम की आस॥
लिया गरीब ने घर बार छोड़कर बनबास।
      जो यह नहीं है तो कहते हैं फिर किसे सन्यास॥

तमाम उम्र कटी एक ही करीने पर ।
      गिराया अपना लहू कौम के पसीने पर॥
इसी के हाथ में है कौम का सॅंवर जाना।
      तुम्हारी डूबती कश्ती का फिर उभर जाना॥

जो तुमने अब भी न दुनिया में काम कर जाना।
      तो यह समझ लो कि बेहतर है इससे मर जाना॥
गजब हुआ जो दिल इसका भी तुमसे ऊब गया।
      गिरा इस आंख से आंसू तो नाम डूब गया॥
घटाएं जहल की छाई हुई हैं तीर-ओ तार ॥
      यह आरजू है कि तालीम से हो बेड़ा पार॥

मगर जो ख्वाब से अब भी न तुम हुए बेदार।
      तो जान लो कि है इस कौम की चिता तैयार॥
मिटेगा दीन भी और आबरू भी जाएगी।
      तुम्हारे नाम से दुनिया को शर्म आएगी॥
जो इस तरह हुआ दुनिया में आवरूका जवाल।
      तो काम आयेगा उक्वा में क्या यह दौलतोमाल ॥

करो खुदाके लिये कुछ मरे हुए का ख्याल्।
      न हों तुम्हारे बुजुर्गों की हड्डियां पामाल ॥
यह आबरू तो हजारों बरस में पाई है।
      न यों लुटाओ कि ऋषियों की यह कमाई है॥

लुटाओ नामपै दौलत अगर हो गैरतदार।
      पुकार उठे ये जमाना कि है यह पर उपकार॥
है जोर हिम्मते मर्दाना कौम को दरकार।
      बरक उलट दो जमानेका मिलके सब इक बार ॥
अगर हो मर्द न यों उम्र रायगां काटो।
      गरीब कौम के पैरोंकी बेडि‌यां काटो॥

यह कारे खैर वो हो नाम चारसू रह जाय।
 तुम्हारी बात जमाने के रूबरू रह जाय ॥
जो गैर हैं उन्हें हॅंसने की आरजू रह जाय । 
गरीब कौम की दुनिया में आबरू रह जाय ॥
जरा हमैयतो गैरत का हक अदा कर लो
फकीर कौम के आए हैं झोलियां भर दो ॥

यहां से जाएं तो जाएं यह झोलियां भरकर। 
लुटाएं इल्म की दौलत तुम्हारे बच्चों पर ॥
इधर हो नाज यह तुमको कि खुश गए ये बशर।     
जो हो सका वह किया नज्र इनके टेकके सर ॥
यही हो फखृ जबानों का और पीरों का।      
सवाल रद न किया कौम के फकीरों का॥

उर्दू शब्दों को पढ़ने तथा लिखने में हुई टाइपिंग की गल्तियों के लिये अग्रिम क्षमा॥

विवेकानंद जैन॥